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कविता

बारिश

महेश वर्मा


घर से निकलते ही होने लगती है वर्षा
थोड़ा बढ़ते ही मिटते जाते कीचड़ में पिछले पदचिह्न
ढाँढ़स के लिए पीछे मुड़कर देखते ही
ओझल हो चुका होता है बचपन का घर।
घन-गर्जन में डूब जाती माँ-बाबा को पुकारती आवाज़
पुकारने को मुँह खोलते ही भर जाता है वर्षाजल
मिट रही आयु रेखाएँ त्वचा से
कंठ से बहकर दूर चला गया है मानव स्वर
पैरों से उतरकर कास की जड़ों में चली गई है गति।
अपरिचित गीली ज़मीन पर वृक्ष सा खड़ा रह जाता आदमी
पत्रों पर होती रहती है बारिश।


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